हिन्दी कविता - होली में
नहीं मिलते, जिन्हें हम खोजते फिरते हैं, होली में,
हमारा दिल चुरा कर रख लिया है अपनी चोली में,
नहीं परवाह उन को है क हम पर क्या गुजरती है,
इसे वे बेरहम हंस कर उड़ा देते ठिठोली में,
खबर उन को नहीं शायद कि हम शैतान हैं ऐसे,
किसी दिन बैंड बजवा कर उठा लाएंगे डोली में ।
- डा. रुक्म त्रिपाठी
A Hindi Poem Hindi Kavita Hindi Hasya Kavita Holi Hasya By Dr Rukma Tripathi
Hindi Holi Peom, Hindi Holi Kavita, Holi Humgama
Wednesday, October 21, 2009
Wednesday, October 14, 2009
Re Kahe Hui Paturia - Hindi Kavita
An experimental Hindi Poetry by Sanjeev Thakur.
Sanjeev Thakur ki Prayog dharmi Hindi Kavita.
रे काहे हुई पतुरिया
अंकालिक
स्त्री के विक्षत
भ्रूण ने
विचारा ।
आदि काल से
इस काल तक
अकाल कुसुम,
तुझे क्या
मिला ।
भ्रूण में
रक्ताल्पता रही,
पैदा हुई,
धात्री, चल बसी
भ्रूण से बाहर
अर्ध्द विचेतन,
गरीबी, बेकारी,
और क्षुदा ने पाला
तुझे
चंद मटमैली
दूध की बूंदों नें
दो, जीजीविषा,
आंखे खोलने
की शक्ति ।
अकिंचन ।
अक्षुब्ध काल, में
तात ने छोडा साथ
नि: स्संग ।
छोड गया
विचेतन ।
घिरी तमाम,
अजारियों से
शिकार बनी
अंधी हवस का
रोटी की
जगह ली
वासना ने
दोहरे सामाजिक - मापदण्ड,
आडम्बर
अनभोरी ।
फिर लुटी
अनोह
वक्त के हाथों
ईश्वर के हाथों ।
स्त्री अमनियां
किससे कहती
किससे रोती
खेला,
अनुक्षण,
स्त्री फिर अनाथ हुई ?
तोतली बोली के साथ
शुरू हुआ बाल श्रम
का अनिवार सिलसिला ।
पेट और पीठ की
अदांत दूरी न नाप
सका कोई
पेट की आग ही
ईमान, धरम और
अनय बनी ।
अनिमेष
जिंदगी ने एक बार
फिर,
दोजख की कोख
को जन्म लिया
अनंग ।
रोटी की खातिर,
ऐसे ही सुबह और
ऐसे ही शाम हुई ।
स्त्री जात फिर अनाथ हुई ।
शैशव, बाल्यकाल ।
और कलम
पनासना,
और मुंह के निवालों
ने छीना ।
मुस्कुराहट
वक्त के थपेडों ने
खिलखिलाहट
सामाजिक - अध्यास
और
दोगलेपन ने
स्त्री फिर अनाथ हुई ।
तरूणाई शुरू ही हुई थी ।
एक गैर सामाजिक खेल
यौवनावस्था से पहले ही
वह पेट से थी ।
होना पतुरिया
विवशता थी ।
अकाल - कुसुम
अगम्या,
फिर यकायक
विचारवान हुई,
स्त्री,
रे काहे फिर हुई अनाथ ?
संजीव कुमार ठाकुर
रिक्रिएशन रोड
चौबे कालोनी, रायपुर (छ.ग.)
अकालिक (अचानक), वि-क्षत (घायल), अकाल कुसुम (जो फूल समय से पहले खिला हो), अर्ध्दविचेतन (अर्ध्दबेहोशी), क्षुदा (भूख), जीजीविषा (जीने की इच्छा), अकिंचन (दरिद्र), नि:स्संग (अकेला), विचेतन (बेहोश), अजारियों (बीमारियों), अनिवार (अनिवार्य), अदांत (उधण्ड), अनय (देह रहित), पनासना (पालन-पोषण), सामाजिक अभ्यास (मिथ्या-भ्रम), अनभोरी (भुलावा, चकमा), अनीह (इच्छारहित), अमनिया (पवित्र), अनुक्षण (लगातार), पतुरिया (वेश्या), अगम्या (जिससे संभोग वर्जित है)
A Hindi Poem on Women.
Sanjeev Thakur ki Prayog dharmi Hindi Kavita.
रे काहे हुई पतुरिया
अंकालिक
स्त्री के विक्षत
भ्रूण ने
विचारा ।
आदि काल से
इस काल तक
अकाल कुसुम,
तुझे क्या
मिला ।
भ्रूण में
रक्ताल्पता रही,
पैदा हुई,
धात्री, चल बसी
भ्रूण से बाहर
अर्ध्द विचेतन,
गरीबी, बेकारी,
और क्षुदा ने पाला
तुझे
चंद मटमैली
दूध की बूंदों नें
दो, जीजीविषा,
आंखे खोलने
की शक्ति ।
अकिंचन ।
अक्षुब्ध काल, में
तात ने छोडा साथ
नि: स्संग ।
छोड गया
विचेतन ।
घिरी तमाम,
अजारियों से
शिकार बनी
अंधी हवस का
रोटी की
जगह ली
वासना ने
दोहरे सामाजिक - मापदण्ड,
आडम्बर
अनभोरी ।
फिर लुटी
अनोह
वक्त के हाथों
ईश्वर के हाथों ।
स्त्री अमनियां
किससे कहती
किससे रोती
खेला,
अनुक्षण,
स्त्री फिर अनाथ हुई ?
तोतली बोली के साथ
शुरू हुआ बाल श्रम
का अनिवार सिलसिला ।
पेट और पीठ की
अदांत दूरी न नाप
सका कोई
पेट की आग ही
ईमान, धरम और
अनय बनी ।
अनिमेष
जिंदगी ने एक बार
फिर,
दोजख की कोख
को जन्म लिया
अनंग ।
रोटी की खातिर,
ऐसे ही सुबह और
ऐसे ही शाम हुई ।
स्त्री जात फिर अनाथ हुई ।
शैशव, बाल्यकाल ।
और कलम
पनासना,
और मुंह के निवालों
ने छीना ।
मुस्कुराहट
वक्त के थपेडों ने
खिलखिलाहट
सामाजिक - अध्यास
और
दोगलेपन ने
स्त्री फिर अनाथ हुई ।
तरूणाई शुरू ही हुई थी ।
एक गैर सामाजिक खेल
यौवनावस्था से पहले ही
वह पेट से थी ।
होना पतुरिया
विवशता थी ।
अकाल - कुसुम
अगम्या,
फिर यकायक
विचारवान हुई,
स्त्री,
रे काहे फिर हुई अनाथ ?
संजीव कुमार ठाकुर
रिक्रिएशन रोड
चौबे कालोनी, रायपुर (छ.ग.)
अकालिक (अचानक), वि-क्षत (घायल), अकाल कुसुम (जो फूल समय से पहले खिला हो), अर्ध्दविचेतन (अर्ध्दबेहोशी), क्षुदा (भूख), जीजीविषा (जीने की इच्छा), अकिंचन (दरिद्र), नि:स्संग (अकेला), विचेतन (बेहोश), अजारियों (बीमारियों), अनिवार (अनिवार्य), अदांत (उधण्ड), अनय (देह रहित), पनासना (पालन-पोषण), सामाजिक अभ्यास (मिथ्या-भ्रम), अनभोरी (भुलावा, चकमा), अनीह (इच्छारहित), अमनिया (पवित्र), अनुक्षण (लगातार), पतुरिया (वेश्या), अगम्या (जिससे संभोग वर्जित है)
A Hindi Poem on Women.
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